नीकी लागत मोहे अपने पिया की
कभी कभी ज़िन्दगी में हैरत अंगेज तजुर्बे होते हैं, हम लोग आपस में किस तरह से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं या किस किस तरीके से एक दूसरे से सीखते हैं, सिखाते हैं, एक दूसरे को मुतासिर करते हैं ,ये अपने आप में एक रिसर्च का विषय है। मैं एक वाकया लिखता हूं।
कई बरस पहले की बात है । मैं आगरा से दिल्ली जाने के लिए ट्रेन में जब सवार हुआ तो देखा कि मेरे सामने की तरफ एक गुरुजी अपने साथियों /चेलों के साथ विराजमान हैं। कुछ चेले गुरु जी का हाथ भी दबा रहे थे, थोड़ी देर के बाद गुरुजी ने उसमे से किसी का नाम लेकर हुक्म दिया के फलां चीज सुनाओ फौरन वह बंदा सामने आया और एक भजन /भक्ति गीत शुरू कर दिया जब वह भजन खत्म हो गया तो दूसरे का हुकुम हुआ तब उसने दूसरा भजन सुनाना शुरू किया तो मुझे यह कलाम जाना पहचाना सा महसूस हुआ
नीकी लगत मोहे अपने पिया की।
आंख रसीली लाज भरी।।
जादू कियो मो पर चितवन सो।
चैन गई मोरी नींद हरी।।
आंख लगत नहीं टुक देखे बिन।
देखै नजर भर जात मरी।।
यह कविता जब खत्म हुई तब तक गुरुजी झूमने लगे थे जब उनका यह हाल खत्म हुआ तो मैंने उनके चेले से कहा कि यह कविता अभी पूरी नहीं हुई इसमें कुछ लाइनें रह गई है तो सबने चौक कर मेरी तरफ देखा और तब गुरु जी ने भी अपने चेले से पूछा कि यह साहब क्या कह रहे हैं ,ये सुनते ही मैं गुरु जी से मुखातिब हुआ कि अभी यह कविता पूरी नहीं हुई है इसकी अंतिम लाइनें रह गई , बोले क्या लाइन है ? तो मैंने उनको सुनाया
मोका न कछु समझा ओ री गुइयाँ।
मैं अस प्यार सो दरगुजरी।।
काहे “तुराब” डरूँ काहू से।
पीत करी का चोरी करी।
गुरुजी चौंके और बार-बार यह लाइनें दोहराते रहे
पीत करी का चोरी करी|
फिर गुरुजी ने हमें अपने पास बुलाकर बिठाया और हमारा नाम, पता पूछा जब मैंने अपना नाम बताया तो उन्हें बहुत हैरत हुई , पूछा कि बेटा तुमको यह सब का ज्ञान कैसे है ?
हमने उन्हें बताया कि यह कलाम हमारे तरफ के एक बड़े सूफी संत का लिखा हुआ है और हमने उनकी किताब में पढ़ा है और ये एक मशहूर ठुमरी है ,तब उन्होंने मुझसे कहा कि इसको एक कागज पर लिख दीजिए और बताया कि यह उनके पिताजी और हमारे बाबा की पसंदीदा कविता है जिसको हम भजन की तरह सुनते और गाते हैं पर यह भी बताया कि उनके पास उनके बाबा की एक डायरी है जिसमें इस तरह के भक्ति गीत लिखे हुए हैं और वह इस गीत को चैक करके मुझे बताएंगे , मेरे पूछने पर उन्होंने ये भी बताया कि वो मथुरा के एक मंदिर के पुजारी है और वहीं जा रहे हैं उसके बाद मैंने उनसे मौलाना हसरत मोहानी का कृष्ण जी से अपने लगाव का जिक्र किया और उन्हें मौलाना हसरत मोहानी के दो शेर सुनाये जो मुझे उस वक़्त याद आए।
कुछ हमको भी अता हो __ऐ हजरते कृष्ण
इकलीम ए इश्क आप के ज़ेर ए क़दम है आज
हसरत’ की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
सुनतेहैंआशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज
यह सुनने के बाद गुरुजी बहुत खुश हुए और अपने चेलों से मुखातिब होकर बोले देख रहे हो |
उसके बाद उन्होंने एक से मेरा नंबर नोट करने को कहा और इतनी देर में मथुरा का स्टेशन आ गया और मथुरा में यह पूरा काफिला उतर गया | मुझे याद है कि जब मैं दिल्ली पहुंच गया तो उसके कुछ रोज़ के बाद मथुरा से फोन आया पहले एक आदमी ने मुझे बताया कि गुरु जी आप से बात करेंगे और कुछ देर के बाद गुरुजी की आवाज सुनाई दी । गुरु जी ने मुझे बताया कि मेरी बात सही थी और उनके बाबा की डायरी में हू ब हू पूरा गीत मिला जो मैंने लिखकर दिया था, उन्होंने मुझे इस तरह के कलाम भेजने के लिए भी कहा और मुझे मथुरा आने के लिए भी कहा मगर क्योंकि मुझे इंडिया से वापस आना था मैं उनकी ख्वाइश पूरी नहीं कर सका।
इस बातचीत के बाद उन्होंने अपनी ओर से फोन पर ही एक ठुमरी भेजी जिनको देख कर मुझे यकीन हो गया कि अच्छा और सच्चा कलाम बहुत दूर तक जाता है, वहां जहां तक हम सोच भी नहीं सकते , क्योंकि जो ठुमरी उन्होंने भेजी वो शाह मुहम्मद काजिम कलंदर की लिखी हुई थीं जो इन्हीं शाह तुराब अली के पिता थे और उन्होंने ये बताया कि ये गीत खास तौर से जन्माष्टमी के मौके पर पढ़े जाते हैं , जो ठुमरी उन्होंने भेजी वो ये थीं
भूल गई हमरी सुध उनका, जब से राजा कीन घुसय्याँ
हमरी संग खेलत गोकुल्मां, तो सब बिसर गयीं लरकय्याँ
हमरी अन्ख्याँ चुभत है वे दिन, जे दिन रहे करवट गय्याँ
सुध आवत व दिन कि अव्धो, जरत सदा हृदय की सय्याँ
आदि से शाम रहे काज़िम संग, अंत बनी रहे यहे गुय्याँ
काकोरी (लखनऊ) का मशहूर कस्बा हैै जहां सूफी बुजुर्गों का एक पुराना खानदान आबाद है , इस खानदान के संस्थापक शाह मोहम्मद काजिम कलंदर थे ( म.1806 ई) और उनके बाद उनके बेटे शाह तुराब अली कलंदर ( म. 1858 ई) हुए ये दोनों वहां के बड़े सूफी बुजुर्ग गुज़रे हैं और अब तक वहां खानकाह क़ायम है और उनकी बाकमालऔलाद वहां मौजूद है इन बुजुर्गों के फारसी उर्द कलाम के अलावा अवधी ठुमरियां बहुत आला है और पढ़ने से ताल्लुक रखती हैं किसी अगली पोस्ट में इन हजरात पर लिखने का इरादा है।
इन सूफी बुजुर्गों ने खुदा औेर खुदा की मोहब्बत की तरफ पुकारती हुई ऐसी रचनाएं पेश कीं जिस से एक आम इंसान भी इन्हें समझ कर खुदा की मोहब्बत की तरफ बढ़े और और इसके लिए उन्होंने वही प्रतीक इस्तेमाल किए जो उस समय का एक आम आदमी भी समझ सकता था। जैसे कृष्ण कन्हैया ,गोपियां , वृंदावन इनका इस्तेमाल उन्होंने स्थानीय रिवायत को ध्यान में रख कर किया और ये कलाम आज तक उनकी इंसान और इंसानियत से मुहब्बत की यादगार बन कर ज़िंदा है।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि मशहूर मिसरा “कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को” इन्हीं शाह तुराब अली कलंदर का है जिसका इस्तेमाल एक फिल्म में भी किया गया और जो बहुत मशहूर हुआ। असल शेर यूं है।
शहर में अपने_ ये लैला ने मुनादी कर दी
कोई पत्थर से न मारे ___मिरे दीवाने को
Khalid Bin Umar is a history buff who writes on Micro-history, Heritage, Sufism & Biographical accounts. His stories and articles has been published in many leading magazines. Well versed in English, Hindi, Urdu & Persian, his reading list covers a vast arrays of titles in Tasawwuf & Oriental history. He is also documenting lesser known Sufi saints of India